पृथ्वी का तापमान लगातार बढ़ रहा है, मौसम चक्र असंतुलित होते जा रहे हैं, बर्फ की चादरें पिघल रही हैं और समुद्र का स्तर धीरे-धीरे बढ़ रहा है—ये सब संकेत हैं कि जलवायु परिवर्तन अब केवल एक वैज्ञानिक अवधारणा नहीं रह गया, बल्कि यह हमारे दरवाजे पर दस्तक दे रही एक भयावह सच्चाई बन चुकी है।
मानव गतिविधियों, विशेष रूप से औद्योगिक क्रांति के बाद कार्बन डाइऑक्साइड, मीथेन और नाइट्रस ऑक्साइड जैसी ग्रीनहाउस गैसों के अत्यधिक उत्सर्जन ने पृथ्वी के प्राकृतिक संतुलन को गंभीर रूप से प्रभावित किया है। अब यह कोई कल्पना नहीं, बल्कि शोध और आंकड़ों से प्रमाणित सच्चाई है कि पृथ्वी का औसत तापमान 20वीं सदी की तुलना में 1.1 डिग्री सेल्सियस तक बढ़ चुका है।

इसका असर हर क्षेत्र में देखा जा रहा है—बेमौसम बारिश, अधिक तीव्र गर्मी, सूखा, भीषण चक्रवात, जंगलों में आग, और जैव विविधता का क्षरण। सबसे चिंताजनक बात यह है कि इन प्राकृतिक आपदाओं से सबसे अधिक प्रभावित वे समुदाय होते हैं जो आर्थिक रूप से कमजोर और संसाधनहीन होते हैं।
उत्तराखंड में हालिया बारिश: जलवायु असंतुलन का संकेत
हाल ही में उत्तराखंड के विभिन्न हिस्सों में हुई असामान्य और भारी बारिश ने जनजीवन को अस्त-व्यस्त कर दिया। अप्रैल माह में जिस प्रकार की तीव्र वर्षा और ओलावृष्टि दर्ज की गई, वह मौसम चक्र में हो रहे बदलाव की एक गंभीर चेतावनी है। पहाड़ी क्षेत्रों में भूस्खलन, सड़कें अवरुद्ध होना, फसलें नष्ट होना और जन-धन की क्षति इस बात का स्पष्ट प्रमाण हैं कि जलवायु परिवर्तन का असर अब हमारे प्रदेश के दरवाजे तक पहुंच चुका है। विशेषज्ञों का कहना है कि ऐसी घटनाएं अब और अधिक बार और अधिक तीव्रता से होंगी, यदि हमने समय रहते ठोस कदम नहीं उठाए।
भारत पर प्रभाव
भारत जैसे विकासशील देश के लिए जलवायु परिवर्तन एक दोहरी चुनौती है। एक ओर उसे आर्थिक विकास को गति देनी है, तो दूसरी ओर पर्यावरण की रक्षा भी करनी है। जलवायु परिवर्तन का असर देश के कृषि उत्पादन, जल आपूर्ति, और मानव स्वास्थ्य पर सीधा पड़ रहा है। हिमालयी क्षेत्रों में ग्लेशियरों के पिघलने और बढ़ती असमय बारिश की घटनाएं गंभीर चिंता का विषय हैं।
क्या किया जा रहा है?
भारत सरकार ने जलवायु परिवर्तन से निपटने के लिए कई योजनाएं शुरू की हैं, जैसे कि राष्ट्रीय सौर मिशन, ऊर्जा दक्षता कार्यक्रम, राष्ट्रीय हरित ऊर्जा पहल, और इलेक्ट्रिक वाहनों को बढ़ावा देने की योजनाएं। अंतरराष्ट्रीय मंचों पर भारत ने हमेशा ‘जलवायु न्याय’ की बात की है—जिसका अर्थ है कि विकसित देशों को उनके ऐतिहासिक प्रदूषण के लिए अधिक जिम्मेदार माना जाए।
जनभागीदारी का महत्व
सरकारों के साथ-साथ आम नागरिकों की भागीदारी भी बेहद ज़रूरी है। हमें अपने जीवनशैली में छोटे-छोटे बदलाव लाने होंगे—जैसे ऊर्जा की बचत, पानी का संरक्षण, सिंगल यूज़ प्लास्टिक का त्याग, वृक्षारोपण, और सार्वजनिक परिवहन का उपयोग। स्कूलों और कॉलेजों में पर्यावरण शिक्षा को अधिक प्रभावशाली बनाना चाहिए ताकि बचपन से ही एक “हरित सोच” विकसित हो सके।
निष्कर्ष
जलवायु परिवर्तन अब भविष्य की नहीं, वर्तमान की चुनौती है। यह न तो किसी एक देश की समस्या है, न ही किसी एक व्यक्ति की—यह एक वैश्विक संकट है जिसका समाधान भी वैश्विक सहयोग और स्थानीय भागीदारी के मेल से ही निकलेगा। यदि हमने अभी कदम नहीं उठाए, तो आने वाली पीढ़ियों को हम एक संकटग्रस्त और विषम परिस्थिति वाला भविष्य सौंपेंगे। अब समय है कि हम सभी “प्रकृति के रक्षक” की भूमिका निभाएं और पर्यावरण संरक्षण को अपनी प्राथमिकता बनाएं।