देहरादून, राजेन्द्र जोशी। उत्तराखण्ड की धरती लोकपर्वों, पारंपरिक ज्ञान और प्रकृति के साथ गहरे जुड़ाव के लिए जानी जाती है। इन्हीं लोकपर्वों में एक महत्वपूर्ण स्थान है हरेला का, जो न केवल हरियाली का प्रतीक है, बल्कि कृषि संस्कृति, पर्यावरण चेतना और पारिवारिक एकता का भी उत्सव है। हरेला का सीधा संबंध धरती, बीज, ऋतु परिवर्तन और पहाड़ की जीवनशैली से है। आज जब जलवायु परिवर्तन, पलायन और कृषि संकट जैसे मुद्दे सामने हैं, ऐसे में बहुस्तरीय कृषि (Multi Layer Farming) और पर्वतीय संस्कृति को एकसाथ जोड़कर नया दृष्टिकोण प्रस्तुत करना समय की मांग है।

हरेला शब्द “हरि” से बना है, जिसका अर्थ होता है “हरियाली”। उत्तराखण्ड में विशेष रूप से कुमाऊं मंडल में श्रावण मास की संक्रांति ( जुलाई के आसपास) को हरेला मनाया जाता है। इस दिन से सावन का महीना आरंभ होता है, जो वर्षा ऋतु और कृषि की दृष्टि से अत्यंत महत्वपूर्ण होता है। हरेला आने से नौ-दस दिन पहले घर की महिलाओं द्वारा सात या नौ प्रकार के अनाज (जैसे गेहूं, जौ, धान, मक्का आदि) को बांस की टोकरी या मिट्टी के पात्र में बोया जाता है। इन अंकुरित पौधों को हरेला कहा जाता है। संक्रांति के दिन इन्हें काटकर बड़े-बुजुर्ग घर के छोटे सदस्यों को आशीर्वाद स्वरूप सिर पर छुआते हैं। यह केवल परंपरा नहीं, बल्कि बीज संरक्षण, पर्यावरणीय शिक्षा और पारिवारिक संस्कार का गहरा प्रतीक है।
बहुस्तरीय कृषिः हरेला की भावना को आधुनिक कृषि से जोड़ता पर्व
जब हम हरेला पर बीज बोते हैं, तो यह बीजों की विविधता और भूमि की उपजाऊ शक्ति की याद दिलाता है। इसी भावना को वैज्ञानिक ने ‘बहुस्तरीय कृषि’ के रूप में अपनाया है। पहाड़ों में सिंचित भूमि सीमित होती है, इसलिए बहुस्तरीय खेती एक उत्तम समाधान है, जिसमें एक ही क्षेत्र में अलग-अलग ऊँचाई पर कई प्रकार की फसलें उगाई जाती हैं। इस तरह की खेती से भूमि का अधिकतम उपयोग, जल संरक्षण, कीट नियंत्रण और आय में वृद्धि संभव है। यही नहीं, यह पारंपरिक ज्ञान और आधुनिक कृषि विज्ञान का सुंदर समन्वय प्रस्तुत करता है।
हरेला पर्व ना केवल एक त्योहार है, बल्कि पहाड़ी जीवन के प्राकृतिक दर्शन का उत्सव है। उत्तराखण्ड की संस्कृति में पेड़ों को भाई, नदी को मां और भूमि को देवी माना जाता है। हरेला के दिन लोग वृक्षारोपण भी करते हैं । हरेला के तौर पर एक लोकपर्व जो आधुनिक समय में पर्यावरण संरक्षण की नींव बन सकती है जो मानवजाति के साथ-साथ पूरी पृथ्वी को जलवायु परिवर्तन जैसे विनाश से बचाने में नई दिशा दे सकती है।
संस्कृति, प्रकृति और तकनीक का त्रिवेणी संगम
आज जब पहाड़ों से पलायन एक बड़ा मुद्दा बन चुका है, तब हरेला जैसे पर्व और बहुस्तरीय खेती के प्रयोग ग्रामीणों को गांव से जोड़ सकते हैं। हरेला की परंपरा हमें सिखाती है कि कैसे प्रकृति से प्रेम कर उसे संरक्षित किया जाए और बहुस्तरीय खेती हमें यह बताती है कि सीमित संसाधनों में भी कैसे समृद्धि लाई जा सकती है।
उत्तराखण्ड के पर्व हरेला की आत्मा प्रकृति के प्रति कृतज्ञता, कृषि के प्रति आदर और संस्कृति के प्रति गर्व से जुड़ी है। यदि हम इस परंपरा को Multi Layer Farming जैसी तकनीकों से जोड़ें, तो न केवल कृषि को सशक्त बना सकते हैं, बल्कि पर्वतीय संस्कृति को नवजीवन भी दे सकते हैं।